रास्ता पता है मगर..मंजिल से अनजान हूँ

रास्ता पता है मगर..मंजिल से अनजान हूँ

Monday, 21 January 2019

रसोगुल्ला

"तुम्हारे गाल.... कभी देखा है तुमने इनको..गौर से... तुम रसगुल्ला हो मेरी.."
वो हंसी।
"चलो..इसी बात पे, आज का रसोगुल्ला तुम्हें खिलाता हूँ, मेरी तरफ़ से"
"आज.. आज कुछ है क्या..?", वो बोली।
"मैंने तो सुना था..लड़कियों और तारीखों की गहरी दोस्ती होती है, बल्कि.. कुछ-एक तो इन्हें तलवार की तरह इस्तेमाल करती है"
अरे बाबा..नहीं ध्यान आ रहा है, बताओ तो सही।
"चलो..चलते हैं, दास बाबा के यहां..जहाँ हम मिले थे.."
"दास बाबा, दो रसोगुल्ला लगाना, एक ही प्लेट में, और हां...एक ही चमच्च.." बोल के उसने उसकी तरफ चोरी से नज़रें घुमायी। उसने, उसका मुस्कुराते हुए चेहरा को देख लिया था।
पहला टुकड़ा उसने उसको खिलाया.. बोला हमारी सालगिरह मुबारक हो.."
"ओह तेरी.. मैं ये..कैसी भूल गयी.."
ठीक एक साल बाद दोनों ने वहीं मिलने का तय किया.. वही दास बाबा के दुकान पे।
इस बार उसने सोचा हुआ था, कि वो दास बाबा के नए स्पेशल सोन्देश खिलायेगा, रसोगुल्ला के साथ।
"दास बाबा.. दो प्लेट में लगाना आपके सबसे फेमस वाले सोन्देश"
"बेटा चमच्छ दो..या..एक" बाबा ने पूछा, और दोनों मुस्कुरा दिए।
"टेबल पे सोन्देश को सजे.. घंटे से ज्यादा हो गए..लेकिन वो नहीं आयी.."
वो उठा, सोन्देश को वैसा ही सजा हुआ छोड़ के मेन्यू में सौ के दो नोट रख के भारी कदमों से बाहर की ओऱ चल पड़ा।

Wednesday, 27 December 2017

गाम गोलमा - 2 गाँव मेरा, मेरे शब्दों में; गाँव का रहन-सहन, आचार-विचार



गोलमा की एक सर्द सुबह, फोटो कृष्ण मंदिर के समीप तालाब की है..
गोलमा में सूर्यास्त होते हुए..

         बात जरा ये एक साल पुरानी है. दिसम्बर'16 का ही महीना था. अमूमन मैं ठंडियों में गाँव जाने से बचता हूँ,
लेकिन उस बार जाना पड़ा था. मधेपुरा से गाँव की बस में बैठने के बाद मैंने अपना फ़ोन निकाल के
बैटरी स्टेटस को चेक किया, जो कि 36% दिखा रहा था. फ़ोन के होम पेज की घड़ी शाम के 7:20 का समय दिखा रही थी. यहाँ तक तो फ़िलहाल जियो का नेटवर्क भी मौजूद था. राहत की साँस ली, और भगवान से भी मनाया की "हे भगवान्! गाँव में भी इन दोनों की कृपा बनाये रखना". हालाँकि बघवा वाली काकी ने बहुत पहले बताया था कि "जाड़ में लाइट ह-ह करैत रहे छे" मतलब  ठंडियों में बिजली की स्थिति बहुत अच्छी रहती है, लेकिन फिर भी मेरे मन में संका थी कि क्या पता, न हो अभी. मैं इसी उधेड़बुन में लगा पड़ा था कि
बस के कंडक्टर ने आवाज़ लगाया- "हय-हय, आइये-आइये, बिशनपुर हटिया, कहरा, पतरघट, गोलमा, चंडी स्थान..."
           धीरे-धीरे कुछ और समय बीता और बस चल पड़ी, मैंने अपनी नज़र एक बार फिर अपनी कलाई घड़ी पे दौड़ाई, 7:30 बज चुके थे. रात के 8:05 पे बस गोलमा चौक पहुँच चुकी थी. मैंने अपना सामान उठाया और बस से उतरा. अपने चारों ओर के मनोरम दृश्य देख कर एक सुखद एहसास हुआ. "भई! लाइट थी गाँव में, उस वक़्त." और जहाँ तक मुझे पता है, वो गाँव के निजी बिजली सप्लायर रंजन की नहीं, सरकारी लाइट थी. मैं खुश था, गाँव के विकास को देख कर. कुछ खम्भों में बल्ब लगे हुए थे, और जल भी रहे थे.
खम्भों में दिन के उजाले में भी जलता हुआ 100W का बल्ब, ये शुरुवाती तस्वीर है, अब ये बल्ब फ्यूज हो चुके हैं, और अभी इन खम्भों के नीचे अँधेरे का राज चलता है
फिर भी रास्तों में फैली गंदगी से बचने के लिए मैंने अपना फ़ोन निकाला. कीपैड लॉक खोला, फ़्लैश लाइट ऑन करते हुए मेरी नजर जियो के नेटवर्क बार पर पड़ती है और मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता है. "भई! गाँव में जियो का नेटवर्क भी मौजूद था..". जैसे किसी प्यासे को किसी जलकुंड के पानी को छूकर आई हवा का एहसास हुआ हो, कुछ वैसी ही ख़ुशी महसूस कर रहा था. सच में!
         गाँव में तब अधिकतर घरों में वो 100W के बल्ब ही जल रहे थे. हालाँकि अभी गाँव के लगभग 70% घरों में एल.ई.डी. बल्ब ने अपनी पहुँच बना ली है. गाँव के पोस्ट ऑफिस में सरकारी दामों में मिलने वाला यही एल.ई.डी. बल्ब मौजूद है. एल.ई.डी. बल्ब के फायदे देखते हुए गाँव वालों ने इसे खुले हाथों खरीदा. 9W के सरकारी बल्ब के लिए आपको रु120 चुकाने होंगे. और यही बल्ब अगर आप सहरसा या मधेपुरा से खरीदते हैं तो आपका काम रु70-80 में बन सकता है. इन बल्बों की  3 साल की वारन्टी भी दी जाती है. गाँव में अभी सरकारी बिजली को दो अलग अलग स्थानों से सप्लाय किया जा रहा है. दोनों फेज में बी.पी.एल. और ए.पी.एल. लोगों को बिजली देने की व्यवस्था है. बी.पी.एल. को कुछ कम दामों में बिजली दिया जा रहा है. बी.पी.एल. कनेक्शन लिये हुए घरों के बाहर आपको एक पतला सा खम्भा, जो ऊपर से मुड़ा हो, दिख जाएगा, जो कि इस बात का प्रमाण है कि
आपने बी.पी.एल. कनेक्शन लिया हुआ है. हालाँकि यदि आपकी थोड़ी-बहुत जान पहचान है, और यदि आप, खुद को रंगदार समझते हैं तो आप ए.पी.एल. होते हुए भी नियमों को ताक पे रखते हुए बी.पी.एल. कनेक्शन ले सकते हैं. रंगदारी तो जानते ही होंगे आप..? इस प्रदेश में इस शब्द का बहुत चलन है. आजकल तो गाँव का बच्चा-बच्चा खुद को रंगदार मानता है. हाँ तो मैं बिजली व्यवस्था की बात कर रहा था, सरकारी बिजली की सुधरी स्थिति से गाँव के एक व्यक्ति को जरुर छति हुई है, काहे कि इससे, उसके बिजनेस पे अनुकूल नहीं प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. गाँव के निजी बिजली सप्लायर रंजन के उपभोक्ताओं की संख्या में काफी गिरावट हुई है. इनमें अधिकतर उपभोक्ता शोल्कन (छोटी जातियों को संबोधित करने के लिए स्थानीय नाम, जिनमें ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार के छोड़ के सभी जातियाँ आती हैं) हैं, और वो, जो उनके बल्ब के जलने में लगे खर्च को वहन करने में असमर्थ हैं. वैसे सप्लायर ने भी ये दिन आते हुए देखा होगा. ये तो होना ही था. विकास इसी का नाम है. अक्सर विकास का दानव आधुनिकता के नाम पर पुरानी चली आ रही व्यवस्था को चोट कर के चला जाता है. तो अब जब रात में सरकारी बिजली मौजूद नहीं रहती है, तो गाँव वाले रोशनी के लिए मिट्टी के तेल वाले डिबिया को जलाते हैं, बांकियों सामर्थ्यवान के घर मे तो रंजन का सहारा अब भी बना ही है.
     गाँव की धीरे धीरे सूरत बदल रही है. दशकों पहले जहाँ किसी मोहल्ले में गिने चुने पक्के मकान हुआ करते थे, वहीँ अब लोगों के जीवन स्तर इतना बढ़ गया है कि अब गाँव में लगभग 30-35% परिवार ही ऐसे होंगे जिनके घर का एक भी हिस्सा पक्की ईटों और सीमेंट से न बना हो. यहाँ तक कि गाँव में अब चार-पांच दो मंजिला मकान भी बने हैं. देश के प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा जोर शोर से चलाये जा रहे "खुले में शौच मुक्त योजना" को गाँव वालों ने काफ़ी योगदान किया. शुरुवात में सरकार द्वारा शौचालय बनवाने के लिए मिल रहे पैसों से सबने, शौचालय बनाने के अलावा सब कुछ किया. फिर सरकार ने पैसों के बदले शौचालय बनवाने में लगने वाले सामान को ही लोगों तक पहुंचवाया. तो इस कारण गाँव के लगभग सभी घरों में शौचालय बन चुके हैं, लेकिन स्थिति जस की तस है. अब भी सुबह-सुबह आपको लोग लोटा ले जाते दिख जायेंगे. इनमें वो लोग ज्यादा है जो अशिक्षित हैं, इनमें ज्यादातर शोल्कन हैं. ये दूरदर्शी हैं. इनका मानना हैं कि यदि ये अभी से ही शौचालय का इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे, तब जल्द ही उनके लिए बनाया गया हौज़ या गटर भर जाएगा, और फिर इनके आने वाले वंसजों का खासी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा. और इसीलिए ये ले चलते हैं लोटा ले कर. इस व्यव्हार को रोकने के लिए सुनने में आया था कि किसी बड़े अधिकारी ने ये घोषणा की थी कि जो लोगों की खुले में शौच करते हुए फोटो ले कर हमें भेजेगा उसको इनाम स्वरुप कुछ राशि दी जायेगी और जिनकी फोटो आएगी उनको सरकारी लाभ से वंचित किया जाएगा.  उपाय जरुर कुछ हास्यप्रद मालूम होती है, लेकिन प्रभावी भी लगती है. बांकी कुछ जनेऊधारी पुरुष ऐसे भी हैं, जिनके घर में शौचालय बना है, लेकिन वो फिर भी कभी-कभी बाहर में मूत्र त्यागने से परहेज नहीं करते, कारण जो भी हो. कान में जनेऊ दो बार लपेटा, और सर और नज़रें नीचे झुका के लग गए काम पे. इनका मानना है कि खड़े होकर मूत्र त्यागने से उनका जनेऊ अशुद्ध हो जाएगा.
 
पक्के सड़क पे पानी का जमाव देखा जा सकता है.
गोबर और मिट्टी के मिलने से हुई अस्वच्छता, बारिश के दिनों की है ये तस्वीर.

बारिश के मौसम में गाँव के सडकों का बड़ा बुरा हाल हो जाता है, हर तरफ कीचड़, या स्थानीय भाषा में हर तरफ 'थाल'. ऐसा नहीं है की सड़के कच्ची अवस्था में है. गाँव के अंदर की लगभग 90% सड़के पक्की है. फिर भी ये हर बार की समस्या है.
      मैं जिसे समस्या कह रहा हूँ, वो दरसअल उनको समस्या मानते ही नहीं, क्यूंकि...
             " कीचड़ों से तो मैंने जूते और चप्पलों को डरते देखा हैं,
                नंगे पाँवों की तो दोस्ती होती है न उनसे..."
गाँव में ब्राह्मण और राजपूत को छोड़कर 90-95% लोगों के पास गाय भैंस हैं. वो उनको सड़क पे ही बांधा करते हैं, या उनके पशु सड़क पे ही बैठते हैं, और वहीँ मल-मूत्र त्यागते हैं, नाली प्रबंधन न होने के कारण वो सब वहीँ जमा रहता है, जब तक उनके मालिक उनको वहां से साफ़ न कर ले. और बारिश के मौसम में वही थाल का रूप ले लेती है. तो उन मालिकों को कोई समस्या नहीं दिखती हैं, क्यूंकि नंगे पाँव होने की कारण उनके कदम कहीं रुकते नहीं है, वो थाल के बीच से ही खेलते-कूदते निकल जाते हैं. सबसे ख़राब स्थिति गुवंर टोली यानि ग्वालों के मोहल्ले की बन जाती है.
       गाँव की कुल जनसंख्या में से एक चौथाई के पास को पैरों में पहनने के लिए चप्पल नहीं है, उस एक चौथाई में आधी आबादी औरत और बांकी बचे आधे में पुरुष और बच्चे हैं. महिलाओं को यहाँ भी एडजस्ट करना पड़ता है.
तस्वीर ठन्डे मौसम की है, एक बच्चे के पैर नंगे हैं और पीछे सड़क पे ही बंधी गाय और उससे हुई गंदगी देखा जा सकता है.

 गाँव के लोगों में अब भोलापन नहीं रहा, जैसा की पहले आप कभी सोचा करते होंगे. वो भी बदलते ज़माने की तरह, अपनी सोच को बदलना सीख गए हैं. उदहारण के तौर पे, गाँव में आटा चक्की की मशीन पर दुकान वाले सभी नियमों को ताक पर रखते हुए आटा मापने के लिए सरकार द्वारा निर्धारित बाट के बदले पत्थर, लोहे या लकड़ी के छोटे-बड़े टुकड़ों को इस्तेमाल में लाते हैं.
जेह हाथ सेह साथ..

यही नहीं सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान में पिचके हुए बर्तनों से आपको किरासन तेल देंगे. मुनाफाखोरी यहाँ भी बहुत प्रचलित है. यहाँ भी हर तरफ लूटमार चलते रहती है. छोटे दुकानदार सामान पे छपे दामों से ज्यादा दाम मांगने से हिचकिचाहट महसूस नहीं करते. उन्हें क्या करना उपभोक्ता संरक्षण के नियम और कानून से.. खैर, ये चीज़ तो आपको पूरे देश में देखने को मिल जाएगा. गाँव भी इन सबमें कहीं भी पीछे नहीं है. आपको जानकार आश्चर्य होगा की यहाँ आज भी 'वस्तु- विनिमय' का नियम चलता है. यानि अगर आपके घर में गेंहू, चावल, दाल जैसे चीज़ें पड़ी हैं, तो आप उन चीज़ों को दुकान में ले जाकर अपने जरुरत की अन्य कोई चीज़ें ले सकते हैं या चाहे तो आप उस वस्तु के बाजार मूल्य के बराबर पैसे भी ले सकते हैं. और अक्सर दुकानदार छोटे बच्चों को कुछ सामान लेने के बाद थोड़ा सा नमकीन या एक दो टॉफी दे देते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में 'फा' कहा जाता है.
यदि आप छोटे बच्चे हैं तो आप सामान खरीदने के बाद, उस खरीद के मुताबिक, हक से 'फा' के लिए कह सकते हैं. ये कुछ ऐसा है जैसे गोलगप्पे खाने के बाद 'पानी' की हक से मांग करना.
          यहाँ अपने से छोटे उम्र के पुरुषों को पुकारने के लिए उसके नाम के बाद "रे" लगाया जाता है और महिलाओं के नाम के बाद में "गे" लगा दिया जाता है. यहाँ कंसर्न माँ-बाप को अपने बच्चों के नाम रखने से पहले दो बातें ध्यान रखनी पड़ती है. पहला तो नाम अच्छा हो, और दूसरा जब बांकी आस-पड़ोस के लोग उसके नाम के बाद प्रत्यय लगाये तो नाम सुनने में उतना बुरा न लगें. जी हाँ, आपने सही सुना, यहाँ लोगों को उनके नाम के
बाद प्रत्यय जोड़ के बुलाया जाता है. ये निश्चित है. सामान्यत: लड़कों के नाम के बाद "आ" या "वा" या "बा" और लड़कियों के नाम के बाद "या" या "वा" जोड़ दिया जाता है. उदहारण के तौर पे - यदि किसी लड़के का नाम यहाँ उसके माँ-बाप ने 'सुमित' रखा हो, तो गाँव वाले उसको - "हे रे सुमितबा!" कह के बुलायेंगे,
और किसी लड़की का नाम "ख़ुशी" हो, तो वो अपने आस-पड़ोस में "हे! गे खुशीया" से पुकारी जायेगी...
बांकी अब कुछ लोग इससे बचने के लिए स्वयं ही वे अपने नाम के बाद "जी" लगा लेते हैं. यानि आप जब उनसे उनका नाम पूछेंगे तो वो कहेंगे- 'राहुल जी', या 'संजय जी'. लो अब लगा के दिखाओ कोई कुछ प्रत्यय...
      बांकी यदि आप लोगों को सभ्य और शिक्षित मालूम होंगे या आपने अच्छे कपड़े पहने होंगे, और सामने वाला यदि आपके कुछ विपरीत दशा में होगा, तब आपको अपने लिए संबोधन में "भाई जी" या "सर" सुनने को मिल सकता है. गाँव की बहु को उसके मायके के नाम से जोड़ के यहाँ संबोधित किया जाता है. अगर इस गाँव की कोई बेटी किसी दूसरी जगह शादी के बाद जायेगी, तो उसे 'गोलमा वाली' के नाम से जाना जाएगा, उसके ससुराल में. पुरुषों को इस मामले में भी आजादी मिली है. उनके नाम के पीछे ऐसे कोई पहचान नहीं लगी रहती. इसके विपरीत पुरुषों को अपने ससुराल में और आदर, मान-सम्मान से संबोधित किया जाता है. उनके सर नेम के पीछे प्रत्यय 'जी' लगा दिया जाता है...
      गाँव में यदि किसी बुजुर्ग पुरुष को आपका हुलिया नया जान पड़ेगा, तो ये संभव है कि वो आपको अपने पास बुला के आपका परिचय लें. शहर की संस्कृति से इतर यहाँ लोगों को यहाँ फर्क पड़ता है कि आप क्या काम करते हैं, कहाँ रहते हैं, कहाँ जाते हैं, कहाँ सोते हैं. गाँव में रह रहे अधिकतर बच्चों को गाँव में रह रहे औसतन सभी दुसरे लोगों के नाम, पेशा, आवास यहाँ तक की उनके बच्चों के बारे में पता रहता हैं. यकीं न हो तो आप गाँव में रह रहे  किसी बच्चे को रोक कर किसी भी दुसरे व्यक्ति की तरफ इशारा कर के उनके बारे में काफी कुछ जान सकते हैं. यहाँ अब भी लोगों को 'प्राइवेसी' यानि 'निजता' के बारे में ज्यादा नहीं पता है. अगर आपके सबसे अन्दर वाले कमरे में टेलिविज़न चल रहा हो, और आवज़ सड़क तक जा रही हो, तो आपको मिनटों में ही कुछ नए चेहरे आपके टेलीविजन स्क्रीन को ताकते दिख जायेंगे.
इस तस्वीर के बिना शायद ये पूरी पोस्ट अधूरी होगी.. भगवती स्थान गोलमा

    महिलाएं अब भी पर्दा यानि घूंघट में रहती है, लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है कि समय के साथ साथ ये प्रथा धीरे धीरे समाप्त हो जायेगी. घूम फिर के हर बात शिक्षा पर आ जाती है. शिक्षा की पहुँच अब भी शोल्कन के लोगों तक व्यापक रूप से नहीं पहुंची है. इनमे से कुछ लोग अब भी अपने बच्चों की शिक्षा पूरी नहीं करने देना चाहते हैं. गाँव में बस दसवीं तक का विद्यालय मौजूद है. गाँव में इन जातियों की लगभग 60-65% लड़कियां ही दसवीं तक की शिक्षा ही प्राप्त कर पाती है. ऐसा ही कुछ मिलता जुलता हाल लड़कों का भी है. अधिकतर का मन ही पढाई से भटक जाता है. इसमें दोष उनके अशिक्षित माता पिता का भी रहता है, जो अपने बच्चों को उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित नहीं करते. जब खुद वे मजदूरी या खेती-बाड़ी कर के जीवन काटने के आसरे
पर जीते हैं, तो वो भी सोचते होंगे की क्या करेंगे उनके बच्चे भी जयादा पढ़-लिख के? और ये सच भी है,लड़के बस थोड़ा बहुत पढ़ के वे खेतीबाड़ी व घर के बांकी कामकाज में निपुण हो जाते हैं, गाय- भैंस चराते हैं, उनकी देखभाल करते हैं. भारी काम करते-करते उनका बदन गठीला हो जाता है. अधिकतर की लम्बाई रुक जाती है. उम्र लायक हो जाने पर माँ बाप उनकी शादी करवा देते हैं, और फिर वे मजदूरी के लिए दिल्ली,पंजाब या राजस्थान का रुख करते हैं,..और यही सिलसिला चलता रहता हैं. उनके बच्चे भी यही देख के बड़े होते हैं और वो इसे ही अपना मुकद्दर मान के जीते हैं.
    'बाल-विवाह' या विवाह के लिए उपयुक्त उम्र से कम में ही शादी अक्सर इन्हीं जातियों में देखने को मिल जाती है.
      यहाँ के लोगों का खान-पान साधारण ही है. दाल, चावल और आलू का चोखा यहाँ का मुख्य भोजन है. ये नून-तेल-मिर्च से भी काम चला लेते हैं. दूध में चीनी और रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े को अच्छे से मिला कर खाना बच्चों को पसंद आता हैं और उन बुजुर्गों को भी भाता है जिनके दांत नहीं होते हैं. मूंग, मसूर और मटर दाल की पैदावार क्षेत्र में अच्छी खासी होती है. गाँव के चौक पे आपको मछली, मुर्गे के अलावा मटन यानि बकरे का इन्तेजाम हर शाम को मिल जाएगा. बशर्ते आपको उसके नस्ल और लिंग की अच्छी पहचान होनी चाहिए, नहीं तो आप इसमें भयंकर ठगा सकते हैं. और अगर आपको चौक पे मन-मुताबिक चीज़ नहीं मिल रही है, तो आप पतरघट या बिशनपुर का रुख सकते हैं. वहां एक ख़ास दिन बाजार लगता है, स्थानीय भाषा में जिसे 'हटिया' कहा जाता है. यहाँ आपको चीज़ें कुछ सस्ते दामों में मिल सकती है.
हटिया का एक दृश्य; स्थान- विशनपुर

पहले अधिकतर लोग रविवार, मंगलवार और गुरुवार को मांस-मछली का सेवन नहीं करते थे, लेकीन धीरे-धीरे ये भी बदल रहा है. इसके अलावा कबूतर पालन का व्यवसाय भी पहले काफी अच्छा चलता था. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए ये मटन की तरह होता था. इसके अलावा चौक पर पहले एक छोटी सी देशी और विदेशी मदिरा की दुकान स्थित थी. प्रदेश में शराबबंदी के बाद वो अब हट चुकी है. लेकिन आप यदि सामर्थ्यवान हैं या आपकी थोड़ी बहुत जान-पहचान है, तो आप अपने मतलब की चीज़ें अब भी दूंढ़ सकते हैं.
    गाँव में ऊँचे तबके के लोग, मेरा मतलब सिर्फ उनकी जाति से है, इसमें उनके आर्थिक स्थिति से कोई लेना देना नहीं है, के हिसाब से गाँव में जातियाँ दो प्रकार से विभाजित हैं. एक वो जिनका "पानी चलता है" और दुसरे वो जिनका "पानी नहीं चलता है". पानी चलने से तात्पर्य ये है कि ऐसी जातियाँ जिनका हाथ लगाया हुआ पानी पिया जा सकता है, और दुसरे वे जिनके हाथ का छुआ पानी भी नहीं पिया जा सकता है. गाँव में इन ऊँचे
तबके के लिए इनका धर्म सबसे ऊपर है, इनकी जात सबसे ऊपर है, ये अभी तक इन ओछी भावनाओं से बाहर नहीं निकल पाए हैं. इनमें ज्यादातर बुजुर्ग लोग ही है. अगर आप खुद को खुले और आधुनिक विचारों का मानते हैं, और आपको इनकी बातें सुनने का मौका मिलेगा, तो आपके चेहरे पे न चाहते भी हुए एक मुस्कान आ जायेगी,ये सोच के, कि किस ज़माने में जी रहे हैं ये लोग. ज्यादा दुःख तब होता है, जब नयी पीढ़ी के पढ़े -लिखे लोग, सब कुछ जानते हुए भी ऐसे सोच को समर्थन करते हैं. ये वहीँ हैं जिनको देश से आरक्षण हटाना हैं, लेकिन अपनी सोच भी नहीं बदल सकते हैं.
    अभी गाम गोलमा को बहुत सी चीज़ों से लड़ना है. अशिक्षा, अस्वच्छता, कुपोषण और जातिगत भावनाओं से परे उठना, उनमें से कुछ मुख्य है. नयी शिक्षित पीढ़ी जिन्हें अपनी माटी से प्रेम है, जो अपने गाँव को विकसित देखना चाहते हैं, को वापस गाँव का रुख करना चाहिए. वैसे मुझे पता है, गाँव में शहरी लोगों को देने के लिए स्वच्छ पानी, स्वच्छ हवा और यहाँ होने वाले प्रतिभोज के अलावा शायद ही कुछ नया हो, लेकिन फिर भी
वो लौट के आ सकते हैं अपने माटी के लिए... बस अपनी माटी के लिए...

    Tip: बच्चों के नाम 'अ'कारअंत चुना जा सकता है, समाज में अपने आप लग जाने वाले प्रत्यय कुछ ज्यादा असर नहीं करेगा नाम पे.  😀😉
विद्यालय का मुख्या द्वार, संस्थापक का नाम और स्थापना वर्ष अंकित है .
फोटो में बायीं ओर देवी सरस्वती का मंदिर है.


( इस बार गाँव के माध्यमिक विद्यालय की कुछ फोटो साथ में पोस्ट कर रहा हूँ, विद्यालय का भवन बहुत ही अच्छी स्थिति में है, अपनी खूबसूरती से शहर के कुछ निजी शिक्षण संस्थानों को भी चुनौती दे सकता है... विद्यालय के बीच में देवी सरस्वती का एक मंदिर भी बनाया गया है..आप गर्व कर सकते हैं...  विद्यालय को देख कर...)

          :-    #MJ_की_कीपैड_से




Tuesday, 6 June 2017

'आम आदमी का आम दिवस' - Mango Man's Mango Day!

#आम_दिवस_2017
हाँ, मैं एक सच्चा 'आम' आदमी हूँ। मेरा 'आम' से यहाँ तात्पर्य उ दिल्ली के "आम आदमी पार्टी" वाले 'आम' से नहीं है। वो मुआ तो आजकल सबसे गाली खा रहा है। मेरा 'आम' से यहाँ तात्पर्य 'फलों के राजा' से है। अरे वो जो होता है एम् से मैंगो, आ मैंगो मनै 'आम'। अब आप सही पकड़े हैं बात को। दरसअल, मेरा ये जो आम के साथ जुड़ाव है, वो बहुते पुराना है जी। ये तब की बात है जब हम बहुत छोटे हुआ करते थे। 5 या 6 साल रही होगी उम्र तब। जब हम लोग गांव में ही रहते थे। हमारे पास तब आम की बगिया हुआ करती थी, आम के मौसम में दादा जी बाग के बीच में, बांस के लकड़ी और घास-
फ़ूस की मदद से एक मचान बनाया करवाते थे, छप्पर पे एक प्लास्टिक या पन्नी रखा जाता था, ताकि बारिश से बचा जा सकें, जिसपे वो पूरे आम के मौसम रहने तक वास करते। जी बिल्कुल सही समझे, अपने आमों की रखवाली के लिए। एक बार आम के डालों में मंजरों के टिकला/अमिया में बदलने की जरुरत होती, फिर दादा जी दिन और रात वहीँ बिताते। दिन या रात के खाने के वक़्त हम भाई बहन में से कोई वहां पहले जाता, तब ही दादा जी उस मचान को छोड़ने को राजी होते। तब तक हम बच्चे लोग बगिया में तरह-तरह के खेल खेलते। लूडो और व्यापार मेरा पसंदीदा हुआ करता था तब। कुल 6 पेड़ थे उस बाग़ में, जिसमें एक ही दशहरी (मालदव- स्थानीय नाम) था बाँकी 5 बनारसी (बम्बई- स्थानीय नाम) थे। बगीचे के बीचों बीच एक लीची का पेड़ हुआ करता था, हर आने जाने वाले की नज़र उसमें लगी रहती थी, तो उसका भी विशेष ख्याल रखा जाता था। आस पास के सभी बागों के मालिक अपने मचान बना के लग जाते तपस्या में। जो लगभग ढाई से तीन महीने तक चलती, और जिसके बाद मीठे फल के रूप में उनको वरदान मिलता। वैसे अब वो लीची का पेड़ बाग़ में नहीं रहा, जो कभी हमारे बाग़ की शान हुआ करता था। दादा जी की उम्र धीरे धीरे बढ़ने लगी, अब उनमें उतनी ताकत या सामर्थ्य नहीं रहा कि वो खुद रखवाली कर सकें। और तब तक हम भाई-बहन भी गाँव से बाहर निकल आ चुके थे, अच्छी शिक्षा और अच्छे जीवन के तालाश में। तो अब वहां गाँव में कोई बचा नहीं जिसके लिए रखवाली किया जाए, इसलिए राहगीरों के आखों में लीची के लिए पनपते लालच के कारण हमारे बागों को अवैध दख़ल से बचाने के लिए उन्होंने पेड़ को काट देना ही सही समझा। जब मुझे पता चला तो बहुत ही अफ़सोस हुआ। पास में ही बड़का बबा का भी बगिया था, उसमें एक पेड़ था शायद बबूल या सीसम का रहा होगा। वो पेड़ झुका हुआ था, जमीन से चिपका हुआ। हम सब भाई-बहन, दोस्त लोग एक साथ चढ़ के उसपे चढ़ते और झूलते। हालांकि एक बारी गंगू भैया उस पर से गिर पड़े थे, तो फिर हमें भी घर से उसपे बैठने की मनाही हो गयी थी।
अपने भाई बहनों में सबसे छोटा होने के कारण बहुत प्रेम मिलता था सबसे शुरू से। और उसमें दादा जी का बहुत अहम योगदान है। जब मैं छोटा था, तो मीठा बहुत पसंद करता था, हर वक़्त मीठे की रट लगाये फिरता था, तब मेरा सामना इस 'आम' नाम के जादूगर से हुआ। बहुते कमाल की चीज़ मालूम हुई थी हमें तब ये। फिर क्या था हम बहुत ज्यादा ही इसको खाने लगे। दादा जी भी अपने खाने की प्लेट में मिले आम में से, एक न एक तो ख़ास कर अपने छोटे पोते यानि की मेरे लिए छोड़ ही देते। और ये हर बार की बात होने लगी। किसी ने मुझे सुझाव दिया कि इन आमों को गिनने का। तो जहाँ तक मुझे याद है मेरी गिनती 88 तक पहुँच गयी थी। यानि दादा जी ने अपने हिस्से के 88 आम मुझे खाने को दिए थे। भई उस वक़्त तो ये बहुत बड़ी बात थी मेरे लिए, ऐसा इसलिए भी था क्योंकि तब गिनती एक से सौ तक ही हुआ करती थी। वो तो बाद में पता चला कि ये तो असंख्य तक जाता है मुआ! तो उन दिनों आम बहुत खाया। बहुत ज्यादा खाया। संस्कृत की एक पंक्ति है- "अति सर्वत्र वर्जयेत" अर्थात् किसी भी चीज़ की अधिकता, खराबी या नुकसानदेह होती है। और मैंने भी तो इस मामले में अति ही कर रखी थी। फलस्वरूप आम में मौजूद गर्मी के कारण, मेरे शरीर में जगह जगह फोड़े निकलने लगे। भई साब बहुत परेशान किया था उन दिनों फोड़ो ने। माफ़ी चाहता हूँ अगर आप ये पढ़ के असहज महसूस कर रहे हैं। तो अब घर के सभी लोगों ने मुझे आम खाने से मना करना शुरू कर दिया, दादा जी भी अब कभी कबार ही आम प्लेट में छोड़ा करते। लेकिन मैं कहाँ मानने वालों में से था, घर में पड़े आम का पता मुझे तो मालूम ही था, सो दो- तीन आम उठाता उन आम के ढ़ेर में से और उसे सबकी नज़र से बचाते हुए फुर्रर्रर्रर्रर्र......
जितनी दूर हो सके, घर वालों की नज़रों से, उतनी दूर जा के आम ख़त्म करता और फिर घर पे लौटता। बहुत ही अजीब-अजीब जगह जा के आम को खाया है मैंने।अब भी शरीर पे कई जगह उन फोड़ों की निशानी बची है। अब जो उन बातों को याद करता हूँ, तो बस एक मुस्कान आ जाती है, चेहरे पर।
फिर ये 'आम दिवस' मनाने का सिलसिला शायद 2008 से शुरू हुआ। जब पापा एक दिन अचानक ही 15 किलो आम मंडी से ले आये। तब खाने वालों में, मैं और मेरे बड़े भाई थे। तभी हम दोनों के बीच रेस लगी, कि कौन ज्यादा खा सकता है, तो मैंने उस वक़्त 7 आम खाये थे और 4 आमों से रेस हार गया था। उस साल का वो दिन था, और आज का ये दिन है, हर साल पापा ले ही आते हैं मेरे लिए, जी भर, पेट भर, और मन भर आम खाने को। हाँ जब कॉलेज में तीन साल बाहर दिल्ली रहा, तब मैं इस चीज़ को बहुत मिस करता, सोचता काश मैं अभी पापा के साथ होता। ऐसा नहीं है कि वहां दिल्ली में आम खाया ही नहीं, तीन चार बार बड़े शौक से बनारसी आम खरीद के लाया था, लेकिन चखने पे पता चला कि बस उसकी खुशबू ही बनारसी आम की तरह थी, बाँकी उसमें बनारसी आम जैसा कुछ नहीं था। खुद को ठगा महसूस करता। इसलिए फिर वहां आम को नहीं खाने का फैसला करना पड़ता।
हमारे बाग में एक साल के अंतर पे आमों के बौर अमिया में बदलते, तो उस साल मुझे आम की कमी बड़ी खलती। पता करवाता यदि नानी गाँव में आम के पेड़ में आम आये हैं, तो बस निकल लेता वहां, आम खाने। वहां तो ज्यादा विकल्प मिलते। वहां के पेड़ काफी बड़े हुआ करते थे, और मेरे लिए ताज़ा आम को तोड़ के गिराया जाता।

कभी कभी सोचता हूँ, समय, वो पुराना ही अच्छा था, जब फोन में कैमरा होना ही बड़ी बात मानी जाती थी, अब ये गूगल मैप्स और 4G के दौर में रिश्तों के बीच काफी दूरियाँ आ गयी है। रिश्तों में बहुत खटास आ गयी है। जैसे सब पास होते हुए भी दूर हो गए हैं। लेकिन ख़ुशी है मुझे पापा के रहते मेरा ये आम के प्रति घनिष्ठ प्रेम कभी नहीं टूटेगा। अच्छा लगता है मुझे, जब पापा बिन कहे ही मेरी बात जान जाते हैं। कल ही मैंने साल का पहला पका हुआ आम खाया। और आज ही मैं 'आम दिवस' मना रहा हूँ। मैं हमेशा याद रखूँगा पापा, आपकी इस बात को। लव यू ऑलवेज।
हाँ, अगर आप भी आम खाने के शौकीन है, तो आपको ये जरूर कहूँगा, कि अगर समय हो तो आम के ऊपरी हिस्से को, जिससे वो डाल से जुड़ा होता है, वहाँ से काट के उसे बाल्टी भरे पानी में घंटे भर रख दीजिये, उसकी गर्मी निकल जायेगी, और आप फोड़े से बच जायेंगे।
:D
जब तक मैं ये पोस्ट पूरा लिख पाया, तब तक मेरे आम पानी में ही रखे हुए हैं. चलता हूँ, उनको खाने. 'आम-दिवस' की ढेरों शुभकामनाएं|
#MJ_की_कीपैड_से

Monday, 5 June 2017

10 Movies of Salman, You didn't know, was copied or inspired from Hollywood


1. Ek Ladka Ek Ladki (1992)
Starring Neelam Kothari, who is a rich heiress, loses her memory, where a man (Salman) tries to brainwash her into believing that she is his wife. This is adapted from the American film ‘Overboard (1987)’ starring Kurt Russell and Goldie Hwan.

2. Judwaa (1997)
Starring Karishma Kapoor, this is a story about twins, who are separated at birth, finally meet in adulthood, who becomes a number of misadventures occur as they get mistaken for each other. Which is adapted From Chinese-American Superstar Jackie Chan’s ‘Twin Dragons’ (1992). 

3. Kahin Pyaar Na Ho Jaaye (2000)
Starring Rani Mukherjee (Priya), this is story of a wedding singer (Salman Khan), who falls for Priya. He soon learns that Priya is already engaged to another man, who treats her like garbage, and he must stop their wedding. This story is familiar with Hollywood Rom-Com ‘The Wedding Singer’ (1998) which Starred Adam Sandler and Drew Barrymore. 

4. Har Dil Jo Pyar Karega (2000)
Starring Rani Mukherjee (Pooja) and Preity Zinta (Jahnvi), this movie ruled box office for quite long. This was again adapted from Hollywood’s ‘While You Were Sleeping’ (1995) starring Sandra Bullock. Story starts from an accident, where Pooja goes in coma. (Raj) Salman rescues Rani from accident, and he mistaken for her fiancée by her family. Things complicate as Salman begins to fall in love with her sister (Jahnvi)

5. Phir Milenge (2004)
Starring Shilpa Shetty (Tamanna) and Abhishek Bachchan, is officially adaptation of Hollywood’s Philadelphia (1993) starring Tom Hanks and Denzel Washington. Story revolves around a woman (Shilpa) who’s infected with AIDS, and keeps this secret hidden from her bosses. When she is suddenly fired, she hires a lawyer (Abhishek) for a wrongful dismissal suit. It was disaster on the Box-office collection. In which Salman’ character played lover of Tamanna.

6. Maine Pyar Kyun Kiya? (2005)
Starring Sohail Khan, Sushmita Sen and introduced Katrina Kaif, this story revolves around a dentist (Salman Khan) who wants to marry his girlfriend. He convinces his assistant (Sushmita) to be his wife to cover a lie, but ends up complicating the situation further. Story was remake of ‘Cactus Flower’ (1969) and also performed well on Box-office collection.

7. Salaam-e-Ishq (2007)
It was a multi starring movie, which obviously clashed on Box-office collection. Story revolves around six couples who face problems in their lives when fate forces them to move away from each other. They must overcome these issues in order to make their love triumph, which is again remake of Hollywood flick ‘Love Actually’ (2003).

8. Partner (2007)
Love guru Prem (Salman) teaches men how to woo women. While helping his client Bhaskar (Govinda), who loves his boss (Katrina Kaif), Prem falls in love with a single mother (Lara Dutta) . Prem's love is threatened when his profession is revealed. Surely, it was a Blockbuster of its time, but it was officially remake of Hollywood’s Hitch (2005) starring Will Smith.

9. God Tussi Great Ho (2008)
Yeah! You heard it! It was disaster! It was official remake of ‘Bruce Almighty’ (2003), who did so well not just in his country but overseas too. Starring Jim Carrey, It was blockbuster and they (Bollywood) turned it into mess! Starring Amitabh Bachchan, Sohail Khan and Priyanka Chopra couldn’t save it! Story Revolves around A furious TV reporter (Salman), who demands an explanation from God for the injustice done to him. The Almighty (Amitabh Bachchan) gives him the power to run the world for a while, to teach him how difficult it is.

10. Tubelight (2017)

Don’t know if you already heard it! But yes! This is true. This is latest and last but not ‘The’ least in this segment, which is also about to hit the theatres in upcoming Eid. This is inspired with Hollywood’s 2015 flick named- ‘Little Boy’. Which tells a story about a kid and his believes, whose father has been gone to war against Japan. An encounter with a magician (Ben Chaplin) and advice from a priest (Tom Wilkinson) convince Pepper (Lead Artist) that the power to bring his dad back safely may be within himself and his actions. I found this movie cute and I’m hoping ‘Tubelight’ could do justice with its original flick.
 So, this is it! How did you feel about it. Let me know in the Comment Box.

Tuesday, 16 May 2017

नजरिया (Stop Eve Teasing)


#पिंक_द_मूवी 
"अबे, क्या सही मूवी थी यार.", पहला बोला.
"हाँ. लव्ड इट मैन!. बच्चन वाज डैम इम्प्रेस्सिव..!", दूसरा बोला.
"नो...मीन्स...नो.", पहला बोला.
"साले, ये राजवीर जैसे ही बन्दे हमारे सोसाइटी की लड़कियों को छेड़ते हैं..छे: ...", दूसरा बोला.
"हाँ, सही कह रहा है भाई.. अगर मुझे मिलता न वो... दिखा देता उसको..", पहला बोला.
" नैरो माइंड और कल्चरड पीपल ", दूसरा बोला.
रास्ते में एक पनवाड़ी की दुकान पे, दोनों रुक के सिगरेट खरीद के पीने लगते हैं...
"भाई... वो देख.. गुलाबी स्कूटी पे...", पहला बोला.
"ओह तेरी!! अबे.. क्या चीज़ है...", दूसरा बोला.
"पिंक रंग तो अपना भी पसंदीदा है, क्योँ.. सही कहा न...", तेज़ आवज़ से स्कूटी वाली को देखते हुए पहला बोला.
स्कूटी वाली की तीखी नज़रें उन पे गयी, और बास्टर्ड्स कह के आगे बढ़ गयी... 
:- #MJ_की_कीपैड_से

Friday, 12 May 2017

बाहुबली 2- क्यों न देखें? (Bahubali 2 The Conclusion (2017) Review - Reasons, not to watch it.)

#बाहुबली2
#क्यों_न_देखें
अगर आपने मूवी देख ली है, तो ये पोस्ट आपके लिए है कि आप क्या देख के आयें हैं और आपने क्या-क्या मिस किया,
और यदि आपने नहीं देखी, तो घबराईए मत, मैं ये नहीं बताने जा रहा कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यू मारा.. लेकिन आप ये पोस्ट
पढ़ के ये जान जायेंगे कि, कि देखते वक़्त आपको किस पर्टिकुलर सीन/चीज़ पे अच्छे से ध्यान देना है...
शाहरुख़ की फिल्म का जो डायलॉग है कि, "अगर किसी चीज़ को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात तुम्हें उससे मिलने की साज़िश में लग जाती है.." वही कुछ
इस वाक्ये में चरितार्थ हुई. जिसमें मैं बड़ी शिद्दत से बाहुबली को देखना चाहता है, किसी थिएटर में.. और वो पूरा हुआ..
...
8.May.2017 (8.30pm)
 मैंने अपने फिल्मी गुरु को वादा करके कॉल डिसकनेक्ट किया कि अब मैं पक्का देखने जाने वाला हूँ.
"BAAHUBALI 2.... I'm Coming!!!", ये मन्त्र मैंने 108 बार जपा.. :D
Kidding!! I'm not.. I'm not... I'm.. I'm... :D
खुद को मैं बार-बार याद दिला रहा था कि, मुझे अब तो जाना ही है. अब तो हद ही हो गयी.. सब देख के आ गए हैं.
ऐसी बेचैनी हो रही थी मुझे, मानो जैसे मेरी कोई ट्रेन छूटने वाली हो..
मैं घर आया, 'बुक माय शो' के एप्लीकेशन (जिसको निराशा में आ कर, परसों ही अनइनस्टॉल किया था) को प्ले स्टोर में जा कर दोबारा इनस्टॉल
के बटन पे क्लिक किया.  हालांकि paytm तो यूज़ कर ही रहा था, लेकिन मैंने सोचा, देख लेता हूँ किस में सौदा फायदे का हैं.
दिन के जिओ की 1 gb लिमिट को मैं पहले ही ख़त्म कर चुका था, तो स्पीड बहुत रद्दी आ रही थी. वो 20 mb की फाइल
डाउनलोड होते होते मेरे आँखों ने जवाब दे दिया. फ़ोन के स्क्रीन बार बार ऑफ हो जाती, लेकिन मैं भी उसे बार बार अनलॉक कर के चेक करता, कि
क्या पता स्पीड अब इतने ही देर में अच्छी आई हो, जिओ अपने फॉर्म में आय हो, क्या पता फाइल हो गयी हो डाउनलोड. लेकिन वो भी कमबख्त
बड़ा जिद्दी था, 20 मिनट से ज्यादा ही लग गए होंगे. एप्प के इनस्टॉल होते ही मैंने लोकेशन में रुद्रपुर डाला, वेव सिनेमाज के लिंक पे गया..
और सीट की अवेलेबलिटी चेक करने लगा. मैंने 10 तारीख का सोच रखा था, और मुझे पिछला सीट ही चाहिए था, तो ये सोच के 2 दिन के बाद वाले में
अगर चेक करूँगा तो शायद मिल जाए, फिर याद आया, कि उस दिन तो बुधवार है, और पापा का रेस्ट भी होने वाला है, बोले तो वो घर पे ही रहने वाले हैं.
तो मुश्किल होता, उनके घर पे रहते बाहर जाना. सोचा फिर मंगलवार यानि 9 का चेक कर लूं.. सुबह का ही शो में चहिये था, क्यूकि लौटते
वक़्त अगर शाम हो गयी, तो पापा को पता चल जाएगा कि ये लड़का कुछ तो खिचड़ी पका रहा है.
फिर मुझे वो पल याद आने लगा जब मैंने पापा से आखिरी बार पूछा था.., कि क्या वो जाना चाहेंगे रुद्रपुर या बरेली, ये फिल्म देखने...?
और फिर जब उन्होंने मुझे ऐसे नज़रों से देखा था, मानो कह रहे हो कि
"पागल तो नहीं हो गया है बे..."  :D
तो मैंने 11 बजे का शो चेक किया, मेरी किस्मत थी कि मुझे सीट मिल गयी, वही जो मुझे चहिये था, फिर क्या था..
मैंने अपने एक स्थानीय दोस्त से 12वीं बार पूछने के लिए फ़ोन किया...
"कि क्या अब भी वो बाहुबली को देखने के लिए  नहीं जाना चाहता है....", सोचा, शायद इस बार मान जाए..
काश हमें अपनी ज़िन्दगी में अपने, अपनों को चुनते वक़्त फ़िल्टर का विकल्प मिलता..
जैसे ऑनलाइन खरीदारी के लिए हम फ़िल्टर फीचर का यूज़ करते हैं. वैसा ही कुछ असल ज़िन्दगी में...
1. उसको मूवीज में इंटरेस्ट हो... (चेक)
2. क्रिकेट में इंटरेस्ट हो..  (चेक)
3. टेक्नोलॉजी में इंटरेस्ट हो.. (चेक)
4. आपके बातों को  समझें.. (चेक)
5. वो आपके प्रति लॉयल हो.. (चेक)
6. वो जो बिल्कुल आप जैसा हो... (चेक)
और फिर आप लास्ट में इंटर का बटन दबाते, और आपको वो सब लोग दिख जाते, जो बिल्कुल फ़िल्टर आप्शन से मिलतें हो.
तो सीन अब कुछ ऐसा था कि, अगले पल मैंने खुद को पापा के डेबिट कार्ड के साथ पाया, पापा से दूर हो के, दुसरे रूम में.. 'एक' सीट को बुक
करते हुए... मेरे paytm वोलेट के पैसे मिला के पापा के फ़ोन में 112रु डेबिट के इनफार्मेशन के साथ otp आया... फटाक से
उसको इंटर किया.. टिकट बुक हुआ... फ़ोन में आये ट्रांजेक्सन और otp के मैसेज को डिलीट किया... और चैन की सांस ली... हफ़... मत करना आप..बहुत खतरा होता है भई! :D
अब बस अगली सुबह का इंतज़ार था, जब पापा ऑफिस को निकलने वाले थे.. और मैं अपने सफर पे.. माहिस्मती साम्राज्य के सफ़र पे...
कोई बहाना नहीं दूंढ पा रहा था कि क्या कहूँगा, जब पापा पूछ लेंगे कि, "कहीं जाने का प्लान है, क्या तेरा...?"
**** #9.मई.2017
मेरी सुबह 7 बजे हुई. रात भर की बारिश के कारण आज का मोर्निंग वाक स्किप करना पड़ा. लगा जैसे आज मौसम भी ठीक-ठाक होगा.
सुबह इतनी जल्दी मुझे नहाया हुआ देख, आखिर वही हुआ जिसका मुझे  डर था...
पापा ने पूछ ही लिया.. "कहीं बाहर जाना है क्या..?"
थोड़ी देर कि ख़ामोशी के बाद मैं बोला- "हाँ, रुद्रपुर.."
"रुद्रपुर...? क्या काम है?", दूसरे तरफ से आवाज़ आई..
थोड़ी लम्बी ख़ामोशी के बाद मैं बोला... "मूवी देखने जा रहे हैं 'हम*... बाहुबली 2..."
*उनको नहीं बताना चाहता था कि मैं अकेले जा रहा हूँ.
मैं उनके ताने या कुछ कहने का इंतज़ार कर रहा था, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा.. कुछ भी नहीं.. पता नहीं क्योँ...
कुछ तो कहना चाहिए था न.. कभी कभी ख़ामोशी भी चुभती है... पता नहीं क्योँ...?
"दोपहर 4-5 तक आ जाऊंगा.", बाद मैं मैंने बोला.
दूसरी तरफ से इस बार भी कुछ आवाज़ नहीं आई.  पता नहीं क्योँ...
नाश्ता करके, मैं रोडवेज पे जा पहुंचा. अपने तय रूटीन से लेट था मैं, कहाँ मुझे 8 बजे घर से ही निकलना था, और तभी मैं 8.20 तक
वहीँ बस का इंतज़ार कर रहा था..
पास में ही बोलेरो आई, शायद प्रेस की गाड़ी थी, जो अमूमन जल्दी ही पहुंचा देती है, बस के मुकाबले में..
मैंने पूछा, "कहाँ..रुद्रपुर..?"
ड्राइविंग सीट पे बैठे आदमी ने हाँ मैं अपना सर हिलाया. और मैं बीच वाली सीट पे विंडो वाली सीट पे जा बैठा.
और मैं चल पड़ा अपने सफ़र और अतीत के ख्यालों में, जब कभी मैं गाँव में हुआ करता था, और उस बीच जब कोई ढंग की पिक्चर लगा
करती थी, जिला सहरसा के हॉल में, तो घर वालों से न जाने क्या-क्या बहाने बना के निकल पड़ता था, करीब 60-70km के सफर पे (दोनों तरफ को मिला के)
 लेकिन इस बार कि बात अलग थी, करीब दुगुने से भी ज्यादा थी दूरी. 10 बज के 5 मिनट ही हुए थे और मैं रुद्रपुर के रोडवेज पे खड़ा था.
मैं हॉल तक पहुंचा. ज्यादा भीड़ नहीं थी मॉल में, उस वक़्त. टॉप फ्लोर पे था थिएटर हॉल. वहां मौजूद एस्कलेटर देख के मुझे दिल्ली की याद आ गयी.
क्यूंकि आखिरी बार जब मैं उसपे था, तब मैं दिल्ली में था.
अपना टिकट लेने के बाद, मैं वेटिंग रूम में जा बैठा. ज्यादा चहल पहल नहीं थी, हॉल के सामने में भी.
 बाहर लोग फिल्म के पोस्टर के साथ फोटो खिंचवा रहे थे, मैंने सोचा अगर मूवी अच्छी लगी तो ही फोटो लूँगा, मैं भी पोस्टर के सामने.
अपने हॉल के अन्दर गया मैं. 60% सीट खाली ही थी. वीक डेज का असर था शायद. अपनी सीट पे जा पहुंचा. अभी वक़्त था 11 बजने में कुछ.
मेरी वाली रो पूरी खाली थी लगभग. तभी परदे पे नयी फिल्मों के ट्रेलर चल रहे थे. अचानक राष्ट्रगान चलने लगा. मुझे लग रहा था कि अब इस फैसले पे रोक लग चुकी है.
फ्रंट रो की एक औरत को छोड़ के बांकी सब खड़े हो चुके थे, आधे राष्ट्रगान ख़त्म होने पे वो संकोच करते करते उठ खड़ी हुई.
और फिर हुआ, जिसका हम सबका इंतज़ार था.
 बाहुबली 2 का फ्रंट पोस्टर सामने आया. मुझे भैया ने बताया था कि गौर करना इस फिल्म में स्पोंसर कितने ज्यादे हैं. तो मैंने बाकायदा पूरा
ध्यान दिया की, 2 मिनट और कुछ सेकंड्स तक स्पोंसर का ही नाम आता रहा..
और फिर मूवी की शुरुवात हुई. मैं अपनी सीट पे थोड़ा पीछे ख़िसक के जा बैठा. आराम से...
 मूवी के शुरुवात हुई 'काल भैरव' गीत से...
जब शिवगामी देवी गंगा में डूबती है, और उसका हाथ ऊपर में ही बच्चे को पकड़े रहता है, जो कि पहले पार्ट का ही है. और इसी सीन के साथ ही
बैकग्राउंड में गाना बजता है...
"बलिदानों....आहुतियों....से जन्मी.... ये गाथा..."
उसी समय मुझे लग गया की मैं आज कुछ अनोखा अनुभव करने जा रहा हूँ.
ये बांकी किसी रिव्युज मैं इसका जिक्र, किसी ने नहीं किया था.. की वो जो पीछे से एनीमेशन में पिछले पार्ट का फ़्लैशबैक दिखाया जा रहा है, वो कमाल का है.
ध्यान दीजीयेगा, फिल्म के पहले ही सीन में ही हॉल में ताली बजने लगी.
फिर जब फिल्म में बाहुबली की पहली बार एंट्री होती है, तो वो एक लगभग असंभव सा काम करते हुए दीखता हैं. लेकिन आप उसको मान लेते हो.
उसी सीन में एक विशाल हाथी को फिल्माया गया है. जब वो स्क्रीन पे आया, तो मैं स्क्रीन के कोने पे C.G.I यानि Computerised Graphics
Image लिखे हुआ की तलाश करने लगा. कि क्या ये हाथी असलियत में था या कंप्यूटर से बनाया गया है. आप नहीं बता सकते बस उसको
देख के. इसी सीन के बाद जब बाहुबली का टाइटल ट्रैक आता है, दलेर मेहँदी की आवाज़ बहुत ही खुबसूरत लगती है. और वो सीन, जब बाहुबली अपनी राज गद्दी पे बैठता है,
उसका ढंग यानि इस्टाइल कमाल का है. इसमें साथ ही बाहुबली और कट्टप्पा के रिश्ते की नजदीकियों को बड़ी खूबसूरती से दर्शाया गया है.
दोनों का एक एक्शन सीक्वेंस है, जिसमें वो मिलकर डाकूओं का सामना करते हैं. उनका आपसी ताल मेल लाजवाब है. देखने लायक है, प्रभास के चेहरे के हावभाव, जिसपे आप
यक़ीनन अपना दिल दे बैठेंगे. उसी सीन के पहले ही जब प्रभास देवसेना को पहली बार देखता है. और उसकी खूबसूरती का कायल हो जाता है.
आप इसमें देवसेना की असली खूबसूरती को देख पायेंगे. और तब आप भी  ये जरुर सोचेंगे कि क्या सभी 'अनुष्का' नाम की लड़कियां खूबसूरत होती है.?
जब देवसेना के अपने गृहराज्य में आक्रमण होता है, वहां भी बाहुबली की बुद्धि, या कह लें, राजामौली का डायरेक्शन लाजवाब है. इसी युद्ध के दौरान जब बाहुबली एक ही धनुष से तीन तीर
छोड़ने की कला देवसेना को सीखाता है, वो भी जजब है. उनका फिर आपस में तालमेल भी लाजवाब है.
फिल्म में राज्यअभिषेक का एक सीन आता है, जिसमें आप को प्रभास के चेहरे का हावभाव देखना चाहिए.. कमाल का है. वो गर्व और संतुष्टि का भाव, कमाल था.
इसी सीन में ही बाहुबली को ये प्रसिद्ध डायलॉग आता है..
"अमरेन्द्र बाहुबली... यानि की मैं....."
उसका ये कहना था कि उनकी प्रजा सारी बबला जाती है.
इस भाग में ज्यादा पिछली कहानी पर  ही फोकस किया गया है. बाहुबली की प्रेम कहानी, भल्ला की कूटनीति चाल. आप इनकी कहानी (फ्लैशबैक) में इतने खो जाते है
कि आप वर्तमान यानि वो जगह जहाँ से महेंद्र बाहुबली को कहानी सुनाई जाती है, वहां आप नहीं दोबारा जाना चाहते हैं, जहाँ अब देवसेना एक बूढी औरत में ढल चुकी होती है.
जब कट्टप्पा, बाहुबली को मारने वाला होता है, उसका सीन फिल्म का सबसे भावुक सीन लगा मुझे, लगभग रोने वाला ही था मैं. फिर जब कट्टपा, बाहुबली को
मार देता है, तब भी बाहुबली वो अपना स्वेएग (swag) नहीं भूलता. वो वही अपनी चिर परिचित अंदाज़ में पास में पड़े बड़े से पत्थर पे जा बैठता है, इस्टाइल से, और आपके दोनों हाथ
ताली बजाने को मजबूर हो जाते हैं. फिल्म का म्यूजिक भी लाजवाब हैं. हालांकि सभी गानों को हिंदी में अलग से लिखा गया है, लेकिन फिर भी आप बांकी साउथ कि फिल्मों
के गीतों के तरह बेतुकी और जबरदस्ती लाइन नहीं डाले गए हैं. 'कान्हा सो जा जरा' गानों के लिरिक्स बहुत ही खुबसूरत लिखें गए हैं.
इस पूरे पोस्ट को लिखते वक़्त मैंने बाहुबली के 5 गानों को रिपीट मोड पे चलाया है. अलग ही फीलिंग आ रही है, इससे..
फिल्म का दूसरे गाना का ज़िक्र किये बिना ये रिव्यु अधूरा है, गाने के बोल है - 'वीरों के वीरा', जिसको एक नाव पे फिल्माया गया है.
और वो ही, जिसमें अनुष्का शेट्ठी यानि देवसेना, बला की खूबसूरत लग रही है, और उससे सुन्दर इस गाने का सिनेमेटोग्राफीहै, जब पालकी वाली नाव के, पालकियां, पंख में बदल
जाती है, और नाव आसमान में उड़ने लग जाती है. बहुत ही लाजवाब लगा मुझे. हाँ, इसके अलावा देवसेना की हिंदी में ड्ब्ब्ड आवाज़ मुझे बहुत पसंद आयी. 'मनमोहक!'
तम्मनाह का बहुत ही छोटा रोल है इसमें. पिछले पार्ट की तरह ही इस पार्ट के युद्ध सीन को बहुत ही खूबसूरती, नये और
रचनाताम्क ढंग से फिल्माया गया है. मुझे याद नहीं की मैंने कितने सीन पे, कितनी बार ताली बजाई थी, वो तो अच्छा हुआ की मुझे जोर से सीटी बजाना नहीं आता,
नहीं तो उसपे भी मैं नहीं चूकता. लास्ट के एक्शन सीक्वेंस में आवाज़ की गडगडाहट इतनी ज्यादा हो जाती है कि आप अपने पैरों में कम्पन्न महसूस कर सकते हैं, यकीं मानिए
जो मजा को और बढ़ा देता है. इसी एक्शन सीक्वेंस में एक सीन के दौरान जब बाहुबली हवा में होता है, और उसके हाथों में तलवार होती है, और नीचे उन जमा की गयी लकड़ियों
में ( देवसेना की बनायी हुई चिता पे ) मार खा के थका हारा बैठा भल्ला जब ऊपर निहारता है, तब बाहुबली के साथ ही आसमान में एक कलाकृति उभर के आती है, वो भी लाजवाब था.
निर्देशक साहब ने फिल्म के हर एक सीन में जान फूँक दी है. फिल्म जरा भी बोर नहीं करती. क्रेज इतना हो जाता है, की आप इंटरवल में बाहर भी नहीं जाना चाहते. ये सोच के कहीं
कोई सीन न छूट जाए. ऐसा कैमरा वर्क, सिन्मेटोग्राफी और जबरदस्त VFX का प्रयोग मैंने इससे पहले किसी हॉलीवुड की फिल्मों में भी नहीं देखा है.
मेरे फिल्मी गुरु के, लोगों से पूछने पर, कि उनको कैसे लगी बाहुबली..? लोग बस 'ओ भाई साब!! क्या मूवी थी यार!... मस्त!!..' कह के चुप हो जातें.
इसीलिए वो चाहते थे, कि मैं ये जल्दी से मूवी देखूं, ताकि वो इस मूवी को विस्तार से, सीन दर सीन किसी से डिस्कस कर सकें. वो जनाब तो दूसरे दिन ही देख के आ गए थे.
मैं भी हॉल मैं लोगों को देख के ये समझ चुका था कि अधिकतर लोग बस ये जानने आये हैं कि बाहुबली क्यू मारा गया, या कहानी देखने. हम लोग जैसे कुछ चुनिंदा लोग होंगे या है, जिसने
इतने डिटेल मैं हर एक चीज़ को नोटिस किया. सब के बस बात नहीं है भई ये. यू कैन कॉल मी क्रेजी और समथिंग एल्स. बट दिस इज अ टैलेंट. :p
'भारतीय सिनेमा में बाहुबली 2 एक मील का पत्थर साबित हुआ है, अब बॉलीवुड की फिल्मों को BeforeB2 और AfterB2 से जाना जाएगा.', भैया बोले.
 तो मेरा पूरा पैसा वसूल हुआ, इस मूवी से. मेरी तरफ से 5* . और हाँ, फिल्म ख़त्म होने के बाद, मैंने वापस टॉप फ्लोर पे आकर पोस्टर के सामने सेल्फी ली. :D
 जाइए देख आइये हॉल में इसको अगर अभी तक नहीं देखा, लैपटॉप या मोबाइल में इसको देखने से, आप इसके इफ़ेक्ट के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे.
ऐतिहासिक फिल्म बनी है..
रही बात आप क्यू न देखें इस फिल्म को, तो इसके लिए सिर्फ यही कहूँगा कि अगर आप कुछ ऐतिहासिक या मैजिकल नहीं देखना चाहते है, तो आप न ही देखें.
क्यूंकि पूरी फिल्म ही कमाल बनी है. और हाँ, इसके बाद से ही मैंने राजामौली जी को फॉलो करना शुरू करा है.

 #MJ_की_कीपैड_से

Wednesday, 8 March 2017

Happy International Women's Day

#सफ़रनामा #दोष_आपका_ही_है
#अंतर्राष्ट्रीय_महिला_दिवस की ढ़ेरों शुभकामनाएं आप सभी महिलाओं को। आखिर एक दिन ही सही, लेकिन आप लोगों को सभी से सम्मान मिलता है शायद! आप महान हैं। यकीं मानिए मेरा। तीन साल दिल्ली में घर से अलग काट के, जब मुझे खुद काम करने की नौबत आई, तो मैं अक्सर सोचा करता था कि, "कैसे कर लेती है आप इतना कुछ, कैसे सह लेती हैं आप इतना कुछ, पहले आप अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए इस ज़माने से लड़ती है, फिर आप अपने परिवार में सामन्जस्य बना के चलती है, माँ की सुनती है, पिता की सुनती है, भाई से लड़ती है, झगड़ती है, फिर मेल-जोल भी करती है, घर से ही आपको रोकने-टोकने का सिलसिला शुरू हो जाता है, अपने भाई को बेझिझक रातों को भी दोस्त के साथ मजे करने की अनुमति मिल जाती है, और आपको भरी दुपहरी में भी नही। शुरू से ही आपको अपने भाइयों के साथ भेदभाव से झूझना पड़ता है। सभी हालातों से समझौता करना सीखती है। भाई को अच्छा इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल और आपको सरकारी स्कूल, भाई के लिए दूध के साथ मलाई भी बचाई जाती है, और आपको दूध से ही काम चलाना पड़ता है। भाई को जेब खर्च में तो अक्सर आपसे ज्यादा ही रूपए मिला करते होंगे। उम्र की कुछ दहलीज़ पार करी नहीं की आपका हँसना, खिल-खिलाना ज़माने को चुभना शुरू हो जाता है। आपके चरित्र पर उँगलियाँ उठने शुरू हो जाती है। आपके उड़ते पंखों को उड़ने तो दूर फड़फड़ाने की भी इज्जाजत भी नहीं मिलती। खुश किस्मत हुई तो अपने सगे भाई के रूप में आपको एक नया और भरोषेमंद दोस्त मिलता है। नहीं तो, वो आपका सबसे बड़ा दुश्मन बनता है। उसके इत्तने सवालों से आपको दो-चार होना पड़ता है। कहाँ जा रही है, वो कौन था, किससे बात कर रही थी वैगरह- वैगरह! बढ़ती उम्र के साथ आपको आंसुओं से भी दोस्ती करनी पड़ती है। कई पल ऐसे आते हैं जब आपके साथ उन आंसुओं के अलावा कोई अपना नहीं होता। मेरी दिल्ली की दोस्त राधिका (बदला हुआ नाम) मुझसे कहतीं है- "मंजेश! तुझे पता है कि मैं अपने भाई के सामने रोमेंटिक गाने नहीं सुन सकती, क्योंकि उसको इससे लगेगा की इसका कहीं चक्कर चल रहा है।" लगभग सभी घर की यही कहानी है।
आपको माँ-पापा इसीलिए नहीं पढ़ाते ताकि आप स्वाबलंबी बनें, अपने पैरों पड़ खड़े हों, बल्कि इसीलिए की आपकी शादी अच्छे घर में तय हो जाए। जब आप भी अपने भाई की तरह घर चलाने में मदद की पेशकश करती हैं तो "घर की औरत का बाहर काम करना शोभा नहीं देता है" जैसे बातें कह के चुप करा दिया जाता है। लेकिन दुःख तो तब ज्यादा होता है जब ताउम्र इतनी सारी असमानता झेलने के बाद भी आप अपने जन्मे बच्चों में अपने "बेटों" को ज्यादा दुलारती है, पुचकारती है और फिर वही समय का चक्र चलता रहता है। आप अपने "बेटों" को फिर अव्वल दर्जे के इंग्लिश मीडियम व "बेटियों" को बिना उनकी राय जाने औसत से सरकारी स्कूल में भेजती हैं। और फिर वही समय चक्र....
कक्षा 9 या 10 की हिंदी की किताब में एक अध्याय था, नाम था - "मेरे संग की औरतें" उसमें अभ्यास प्रश्न में ये पुछा गया था कि "लेखिका ने ऐसा क्यों कहा कि, 'औरतें ही औरतों की दुश्मन होती है...'? "
और उसका जवाब हमें रोजाना ही अपने निजी जिंदगी से रूबरू होना पड़ता है।
एक माँ को उसकी शादीशुदा बेटी का फ़ोन आता है, बेटी चरणस्पर्श या अभिवादन करती है, माँ, आशीर्वाद के तौर पे उसे सदा सुहागवती और सदा पुत्रवती बने रहने का आशीर्वाद देती है, लेकिन उनकी पुत्रियों का क्या..? उनसे कोई मोह नहीं..? 
अब बस भी कीजिये। खुद पे ही रहम कीजिये। मत कीजिये भेद भाव। याद रहें आप से ही शुरुवात होती है इन सभी की। और जब आप उन सबसे गुजर चुकी है तब आप कैसे होता देख सकती है अपनी ही बच्ची के साथ।
अच्छा लगता है जब कोई बच्ची, पूछने पर ये कहती है की उसको मम्मी- पापा दोनों ही ज्यादा अच्छा मानते हैं, और अगर यही बात आप किसी लड़के से जानना चाहेंगे तो शायद ही उसका उत्तर में "माँ" का जिक्र न हो।
और आप सभी, पुरुष वर्ग के लोग! जरुरी नहीं है की सड़क पर चलती हर लड़की को मुड़-मुड़ के अपनी आँखों में उनके लिए वो गन्दा सा एहसास उनको दिखाया जाए। अब तो जमाना ऐसा आ गया है कि आप यही खुद के साथ होते हुए कल्पना कर सकते हैं। आप खुद से सवाल पूछिये क्या आपको अच्छा लगेगा अगर कोई दूसरा पुरुष कुछ असामान्य नज़रों से देखें, क्या आप सहज महसूस करेंगे? आप पुरुष हैं तो आप ज्यादा से ज्यादा उससे हाथापाई कर लेंगे, लेकिन महिलाओं पे हाथ उठा के खुद को मर्द मत समझना. भई गांधी जी बाकायदा कह गए हैं, -" आप दुसरो के साथ वैसा ही व्यवहार करें, जैसा आप खुद के साथ करवाना चाहते हैं।" तो, अब तो
बंद कीजिये छिछोरा पंती।
 शायद,धीरे-धीरे ही सही, लेकिन अपना जमाना, अपना समाज बदलेगा, अभी कुछ दिन पहले ही एक पोस्ट को फेसबुक की दीवार पे पढने का मौका मिला, पोस्ट एक छोटी बच्ची के साथ कुकृत्य की घटना की निंदा कर रहा था, पोस्टकर्ता से मेरी निजी जान पहचान है, वो व्यक्ति कुछ सालों पहले छोटे छोटे लड़कियों को देख के आहें भरता था, उनको 'कच्चा माल' कह के संबोधित करता था. शायद स्थिति बदली होगी, शायद अब उस नासमझ
को समझ आई होगी. खैर जो भी हो, आप महिलाएं खुद पे गर्व करें. स्थिति बदलेगी, जरुर! आशान्वित रहें..
They only want #Equality, some have freedoms already!
p.s- I'm not another Feminist, Just a Human being..!!
:- # MJ_की_कीपैड_से