रास्ता पता है मगर..मंजिल से अनजान हूँ

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Wednesday, 27 December 2017

गाम गोलमा - 2 गाँव मेरा, मेरे शब्दों में; गाँव का रहन-सहन, आचार-विचार



गोलमा की एक सर्द सुबह, फोटो कृष्ण मंदिर के समीप तालाब की है..
गोलमा में सूर्यास्त होते हुए..

         बात जरा ये एक साल पुरानी है. दिसम्बर'16 का ही महीना था. अमूमन मैं ठंडियों में गाँव जाने से बचता हूँ,
लेकिन उस बार जाना पड़ा था. मधेपुरा से गाँव की बस में बैठने के बाद मैंने अपना फ़ोन निकाल के
बैटरी स्टेटस को चेक किया, जो कि 36% दिखा रहा था. फ़ोन के होम पेज की घड़ी शाम के 7:20 का समय दिखा रही थी. यहाँ तक तो फ़िलहाल जियो का नेटवर्क भी मौजूद था. राहत की साँस ली, और भगवान से भी मनाया की "हे भगवान्! गाँव में भी इन दोनों की कृपा बनाये रखना". हालाँकि बघवा वाली काकी ने बहुत पहले बताया था कि "जाड़ में लाइट ह-ह करैत रहे छे" मतलब  ठंडियों में बिजली की स्थिति बहुत अच्छी रहती है, लेकिन फिर भी मेरे मन में संका थी कि क्या पता, न हो अभी. मैं इसी उधेड़बुन में लगा पड़ा था कि
बस के कंडक्टर ने आवाज़ लगाया- "हय-हय, आइये-आइये, बिशनपुर हटिया, कहरा, पतरघट, गोलमा, चंडी स्थान..."
           धीरे-धीरे कुछ और समय बीता और बस चल पड़ी, मैंने अपनी नज़र एक बार फिर अपनी कलाई घड़ी पे दौड़ाई, 7:30 बज चुके थे. रात के 8:05 पे बस गोलमा चौक पहुँच चुकी थी. मैंने अपना सामान उठाया और बस से उतरा. अपने चारों ओर के मनोरम दृश्य देख कर एक सुखद एहसास हुआ. "भई! लाइट थी गाँव में, उस वक़्त." और जहाँ तक मुझे पता है, वो गाँव के निजी बिजली सप्लायर रंजन की नहीं, सरकारी लाइट थी. मैं खुश था, गाँव के विकास को देख कर. कुछ खम्भों में बल्ब लगे हुए थे, और जल भी रहे थे.
खम्भों में दिन के उजाले में भी जलता हुआ 100W का बल्ब, ये शुरुवाती तस्वीर है, अब ये बल्ब फ्यूज हो चुके हैं, और अभी इन खम्भों के नीचे अँधेरे का राज चलता है
फिर भी रास्तों में फैली गंदगी से बचने के लिए मैंने अपना फ़ोन निकाला. कीपैड लॉक खोला, फ़्लैश लाइट ऑन करते हुए मेरी नजर जियो के नेटवर्क बार पर पड़ती है और मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता है. "भई! गाँव में जियो का नेटवर्क भी मौजूद था..". जैसे किसी प्यासे को किसी जलकुंड के पानी को छूकर आई हवा का एहसास हुआ हो, कुछ वैसी ही ख़ुशी महसूस कर रहा था. सच में!
         गाँव में तब अधिकतर घरों में वो 100W के बल्ब ही जल रहे थे. हालाँकि अभी गाँव के लगभग 70% घरों में एल.ई.डी. बल्ब ने अपनी पहुँच बना ली है. गाँव के पोस्ट ऑफिस में सरकारी दामों में मिलने वाला यही एल.ई.डी. बल्ब मौजूद है. एल.ई.डी. बल्ब के फायदे देखते हुए गाँव वालों ने इसे खुले हाथों खरीदा. 9W के सरकारी बल्ब के लिए आपको रु120 चुकाने होंगे. और यही बल्ब अगर आप सहरसा या मधेपुरा से खरीदते हैं तो आपका काम रु70-80 में बन सकता है. इन बल्बों की  3 साल की वारन्टी भी दी जाती है. गाँव में अभी सरकारी बिजली को दो अलग अलग स्थानों से सप्लाय किया जा रहा है. दोनों फेज में बी.पी.एल. और ए.पी.एल. लोगों को बिजली देने की व्यवस्था है. बी.पी.एल. को कुछ कम दामों में बिजली दिया जा रहा है. बी.पी.एल. कनेक्शन लिये हुए घरों के बाहर आपको एक पतला सा खम्भा, जो ऊपर से मुड़ा हो, दिख जाएगा, जो कि इस बात का प्रमाण है कि
आपने बी.पी.एल. कनेक्शन लिया हुआ है. हालाँकि यदि आपकी थोड़ी-बहुत जान पहचान है, और यदि आप, खुद को रंगदार समझते हैं तो आप ए.पी.एल. होते हुए भी नियमों को ताक पे रखते हुए बी.पी.एल. कनेक्शन ले सकते हैं. रंगदारी तो जानते ही होंगे आप..? इस प्रदेश में इस शब्द का बहुत चलन है. आजकल तो गाँव का बच्चा-बच्चा खुद को रंगदार मानता है. हाँ तो मैं बिजली व्यवस्था की बात कर रहा था, सरकारी बिजली की सुधरी स्थिति से गाँव के एक व्यक्ति को जरुर छति हुई है, काहे कि इससे, उसके बिजनेस पे अनुकूल नहीं प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. गाँव के निजी बिजली सप्लायर रंजन के उपभोक्ताओं की संख्या में काफी गिरावट हुई है. इनमें अधिकतर उपभोक्ता शोल्कन (छोटी जातियों को संबोधित करने के लिए स्थानीय नाम, जिनमें ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार के छोड़ के सभी जातियाँ आती हैं) हैं, और वो, जो उनके बल्ब के जलने में लगे खर्च को वहन करने में असमर्थ हैं. वैसे सप्लायर ने भी ये दिन आते हुए देखा होगा. ये तो होना ही था. विकास इसी का नाम है. अक्सर विकास का दानव आधुनिकता के नाम पर पुरानी चली आ रही व्यवस्था को चोट कर के चला जाता है. तो अब जब रात में सरकारी बिजली मौजूद नहीं रहती है, तो गाँव वाले रोशनी के लिए मिट्टी के तेल वाले डिबिया को जलाते हैं, बांकियों सामर्थ्यवान के घर मे तो रंजन का सहारा अब भी बना ही है.
     गाँव की धीरे धीरे सूरत बदल रही है. दशकों पहले जहाँ किसी मोहल्ले में गिने चुने पक्के मकान हुआ करते थे, वहीँ अब लोगों के जीवन स्तर इतना बढ़ गया है कि अब गाँव में लगभग 30-35% परिवार ही ऐसे होंगे जिनके घर का एक भी हिस्सा पक्की ईटों और सीमेंट से न बना हो. यहाँ तक कि गाँव में अब चार-पांच दो मंजिला मकान भी बने हैं. देश के प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा जोर शोर से चलाये जा रहे "खुले में शौच मुक्त योजना" को गाँव वालों ने काफ़ी योगदान किया. शुरुवात में सरकार द्वारा शौचालय बनवाने के लिए मिल रहे पैसों से सबने, शौचालय बनाने के अलावा सब कुछ किया. फिर सरकार ने पैसों के बदले शौचालय बनवाने में लगने वाले सामान को ही लोगों तक पहुंचवाया. तो इस कारण गाँव के लगभग सभी घरों में शौचालय बन चुके हैं, लेकिन स्थिति जस की तस है. अब भी सुबह-सुबह आपको लोग लोटा ले जाते दिख जायेंगे. इनमें वो लोग ज्यादा है जो अशिक्षित हैं, इनमें ज्यादातर शोल्कन हैं. ये दूरदर्शी हैं. इनका मानना हैं कि यदि ये अभी से ही शौचालय का इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे, तब जल्द ही उनके लिए बनाया गया हौज़ या गटर भर जाएगा, और फिर इनके आने वाले वंसजों का खासी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा. और इसीलिए ये ले चलते हैं लोटा ले कर. इस व्यव्हार को रोकने के लिए सुनने में आया था कि किसी बड़े अधिकारी ने ये घोषणा की थी कि जो लोगों की खुले में शौच करते हुए फोटो ले कर हमें भेजेगा उसको इनाम स्वरुप कुछ राशि दी जायेगी और जिनकी फोटो आएगी उनको सरकारी लाभ से वंचित किया जाएगा.  उपाय जरुर कुछ हास्यप्रद मालूम होती है, लेकिन प्रभावी भी लगती है. बांकी कुछ जनेऊधारी पुरुष ऐसे भी हैं, जिनके घर में शौचालय बना है, लेकिन वो फिर भी कभी-कभी बाहर में मूत्र त्यागने से परहेज नहीं करते, कारण जो भी हो. कान में जनेऊ दो बार लपेटा, और सर और नज़रें नीचे झुका के लग गए काम पे. इनका मानना है कि खड़े होकर मूत्र त्यागने से उनका जनेऊ अशुद्ध हो जाएगा.
 
पक्के सड़क पे पानी का जमाव देखा जा सकता है.
गोबर और मिट्टी के मिलने से हुई अस्वच्छता, बारिश के दिनों की है ये तस्वीर.

बारिश के मौसम में गाँव के सडकों का बड़ा बुरा हाल हो जाता है, हर तरफ कीचड़, या स्थानीय भाषा में हर तरफ 'थाल'. ऐसा नहीं है की सड़के कच्ची अवस्था में है. गाँव के अंदर की लगभग 90% सड़के पक्की है. फिर भी ये हर बार की समस्या है.
      मैं जिसे समस्या कह रहा हूँ, वो दरसअल उनको समस्या मानते ही नहीं, क्यूंकि...
             " कीचड़ों से तो मैंने जूते और चप्पलों को डरते देखा हैं,
                नंगे पाँवों की तो दोस्ती होती है न उनसे..."
गाँव में ब्राह्मण और राजपूत को छोड़कर 90-95% लोगों के पास गाय भैंस हैं. वो उनको सड़क पे ही बांधा करते हैं, या उनके पशु सड़क पे ही बैठते हैं, और वहीँ मल-मूत्र त्यागते हैं, नाली प्रबंधन न होने के कारण वो सब वहीँ जमा रहता है, जब तक उनके मालिक उनको वहां से साफ़ न कर ले. और बारिश के मौसम में वही थाल का रूप ले लेती है. तो उन मालिकों को कोई समस्या नहीं दिखती हैं, क्यूंकि नंगे पाँव होने की कारण उनके कदम कहीं रुकते नहीं है, वो थाल के बीच से ही खेलते-कूदते निकल जाते हैं. सबसे ख़राब स्थिति गुवंर टोली यानि ग्वालों के मोहल्ले की बन जाती है.
       गाँव की कुल जनसंख्या में से एक चौथाई के पास को पैरों में पहनने के लिए चप्पल नहीं है, उस एक चौथाई में आधी आबादी औरत और बांकी बचे आधे में पुरुष और बच्चे हैं. महिलाओं को यहाँ भी एडजस्ट करना पड़ता है.
तस्वीर ठन्डे मौसम की है, एक बच्चे के पैर नंगे हैं और पीछे सड़क पे ही बंधी गाय और उससे हुई गंदगी देखा जा सकता है.

 गाँव के लोगों में अब भोलापन नहीं रहा, जैसा की पहले आप कभी सोचा करते होंगे. वो भी बदलते ज़माने की तरह, अपनी सोच को बदलना सीख गए हैं. उदहारण के तौर पे, गाँव में आटा चक्की की मशीन पर दुकान वाले सभी नियमों को ताक पर रखते हुए आटा मापने के लिए सरकार द्वारा निर्धारित बाट के बदले पत्थर, लोहे या लकड़ी के छोटे-बड़े टुकड़ों को इस्तेमाल में लाते हैं.
जेह हाथ सेह साथ..

यही नहीं सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान में पिचके हुए बर्तनों से आपको किरासन तेल देंगे. मुनाफाखोरी यहाँ भी बहुत प्रचलित है. यहाँ भी हर तरफ लूटमार चलते रहती है. छोटे दुकानदार सामान पे छपे दामों से ज्यादा दाम मांगने से हिचकिचाहट महसूस नहीं करते. उन्हें क्या करना उपभोक्ता संरक्षण के नियम और कानून से.. खैर, ये चीज़ तो आपको पूरे देश में देखने को मिल जाएगा. गाँव भी इन सबमें कहीं भी पीछे नहीं है. आपको जानकार आश्चर्य होगा की यहाँ आज भी 'वस्तु- विनिमय' का नियम चलता है. यानि अगर आपके घर में गेंहू, चावल, दाल जैसे चीज़ें पड़ी हैं, तो आप उन चीज़ों को दुकान में ले जाकर अपने जरुरत की अन्य कोई चीज़ें ले सकते हैं या चाहे तो आप उस वस्तु के बाजार मूल्य के बराबर पैसे भी ले सकते हैं. और अक्सर दुकानदार छोटे बच्चों को कुछ सामान लेने के बाद थोड़ा सा नमकीन या एक दो टॉफी दे देते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में 'फा' कहा जाता है.
यदि आप छोटे बच्चे हैं तो आप सामान खरीदने के बाद, उस खरीद के मुताबिक, हक से 'फा' के लिए कह सकते हैं. ये कुछ ऐसा है जैसे गोलगप्पे खाने के बाद 'पानी' की हक से मांग करना.
          यहाँ अपने से छोटे उम्र के पुरुषों को पुकारने के लिए उसके नाम के बाद "रे" लगाया जाता है और महिलाओं के नाम के बाद में "गे" लगा दिया जाता है. यहाँ कंसर्न माँ-बाप को अपने बच्चों के नाम रखने से पहले दो बातें ध्यान रखनी पड़ती है. पहला तो नाम अच्छा हो, और दूसरा जब बांकी आस-पड़ोस के लोग उसके नाम के बाद प्रत्यय लगाये तो नाम सुनने में उतना बुरा न लगें. जी हाँ, आपने सही सुना, यहाँ लोगों को उनके नाम के
बाद प्रत्यय जोड़ के बुलाया जाता है. ये निश्चित है. सामान्यत: लड़कों के नाम के बाद "आ" या "वा" या "बा" और लड़कियों के नाम के बाद "या" या "वा" जोड़ दिया जाता है. उदहारण के तौर पे - यदि किसी लड़के का नाम यहाँ उसके माँ-बाप ने 'सुमित' रखा हो, तो गाँव वाले उसको - "हे रे सुमितबा!" कह के बुलायेंगे,
और किसी लड़की का नाम "ख़ुशी" हो, तो वो अपने आस-पड़ोस में "हे! गे खुशीया" से पुकारी जायेगी...
बांकी अब कुछ लोग इससे बचने के लिए स्वयं ही वे अपने नाम के बाद "जी" लगा लेते हैं. यानि आप जब उनसे उनका नाम पूछेंगे तो वो कहेंगे- 'राहुल जी', या 'संजय जी'. लो अब लगा के दिखाओ कोई कुछ प्रत्यय...
      बांकी यदि आप लोगों को सभ्य और शिक्षित मालूम होंगे या आपने अच्छे कपड़े पहने होंगे, और सामने वाला यदि आपके कुछ विपरीत दशा में होगा, तब आपको अपने लिए संबोधन में "भाई जी" या "सर" सुनने को मिल सकता है. गाँव की बहु को उसके मायके के नाम से जोड़ के यहाँ संबोधित किया जाता है. अगर इस गाँव की कोई बेटी किसी दूसरी जगह शादी के बाद जायेगी, तो उसे 'गोलमा वाली' के नाम से जाना जाएगा, उसके ससुराल में. पुरुषों को इस मामले में भी आजादी मिली है. उनके नाम के पीछे ऐसे कोई पहचान नहीं लगी रहती. इसके विपरीत पुरुषों को अपने ससुराल में और आदर, मान-सम्मान से संबोधित किया जाता है. उनके सर नेम के पीछे प्रत्यय 'जी' लगा दिया जाता है...
      गाँव में यदि किसी बुजुर्ग पुरुष को आपका हुलिया नया जान पड़ेगा, तो ये संभव है कि वो आपको अपने पास बुला के आपका परिचय लें. शहर की संस्कृति से इतर यहाँ लोगों को यहाँ फर्क पड़ता है कि आप क्या काम करते हैं, कहाँ रहते हैं, कहाँ जाते हैं, कहाँ सोते हैं. गाँव में रह रहे अधिकतर बच्चों को गाँव में रह रहे औसतन सभी दुसरे लोगों के नाम, पेशा, आवास यहाँ तक की उनके बच्चों के बारे में पता रहता हैं. यकीं न हो तो आप गाँव में रह रहे  किसी बच्चे को रोक कर किसी भी दुसरे व्यक्ति की तरफ इशारा कर के उनके बारे में काफी कुछ जान सकते हैं. यहाँ अब भी लोगों को 'प्राइवेसी' यानि 'निजता' के बारे में ज्यादा नहीं पता है. अगर आपके सबसे अन्दर वाले कमरे में टेलिविज़न चल रहा हो, और आवज़ सड़क तक जा रही हो, तो आपको मिनटों में ही कुछ नए चेहरे आपके टेलीविजन स्क्रीन को ताकते दिख जायेंगे.
इस तस्वीर के बिना शायद ये पूरी पोस्ट अधूरी होगी.. भगवती स्थान गोलमा

    महिलाएं अब भी पर्दा यानि घूंघट में रहती है, लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है कि समय के साथ साथ ये प्रथा धीरे धीरे समाप्त हो जायेगी. घूम फिर के हर बात शिक्षा पर आ जाती है. शिक्षा की पहुँच अब भी शोल्कन के लोगों तक व्यापक रूप से नहीं पहुंची है. इनमे से कुछ लोग अब भी अपने बच्चों की शिक्षा पूरी नहीं करने देना चाहते हैं. गाँव में बस दसवीं तक का विद्यालय मौजूद है. गाँव में इन जातियों की लगभग 60-65% लड़कियां ही दसवीं तक की शिक्षा ही प्राप्त कर पाती है. ऐसा ही कुछ मिलता जुलता हाल लड़कों का भी है. अधिकतर का मन ही पढाई से भटक जाता है. इसमें दोष उनके अशिक्षित माता पिता का भी रहता है, जो अपने बच्चों को उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित नहीं करते. जब खुद वे मजदूरी या खेती-बाड़ी कर के जीवन काटने के आसरे
पर जीते हैं, तो वो भी सोचते होंगे की क्या करेंगे उनके बच्चे भी जयादा पढ़-लिख के? और ये सच भी है,लड़के बस थोड़ा बहुत पढ़ के वे खेतीबाड़ी व घर के बांकी कामकाज में निपुण हो जाते हैं, गाय- भैंस चराते हैं, उनकी देखभाल करते हैं. भारी काम करते-करते उनका बदन गठीला हो जाता है. अधिकतर की लम्बाई रुक जाती है. उम्र लायक हो जाने पर माँ बाप उनकी शादी करवा देते हैं, और फिर वे मजदूरी के लिए दिल्ली,पंजाब या राजस्थान का रुख करते हैं,..और यही सिलसिला चलता रहता हैं. उनके बच्चे भी यही देख के बड़े होते हैं और वो इसे ही अपना मुकद्दर मान के जीते हैं.
    'बाल-विवाह' या विवाह के लिए उपयुक्त उम्र से कम में ही शादी अक्सर इन्हीं जातियों में देखने को मिल जाती है.
      यहाँ के लोगों का खान-पान साधारण ही है. दाल, चावल और आलू का चोखा यहाँ का मुख्य भोजन है. ये नून-तेल-मिर्च से भी काम चला लेते हैं. दूध में चीनी और रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े को अच्छे से मिला कर खाना बच्चों को पसंद आता हैं और उन बुजुर्गों को भी भाता है जिनके दांत नहीं होते हैं. मूंग, मसूर और मटर दाल की पैदावार क्षेत्र में अच्छी खासी होती है. गाँव के चौक पे आपको मछली, मुर्गे के अलावा मटन यानि बकरे का इन्तेजाम हर शाम को मिल जाएगा. बशर्ते आपको उसके नस्ल और लिंग की अच्छी पहचान होनी चाहिए, नहीं तो आप इसमें भयंकर ठगा सकते हैं. और अगर आपको चौक पे मन-मुताबिक चीज़ नहीं मिल रही है, तो आप पतरघट या बिशनपुर का रुख सकते हैं. वहां एक ख़ास दिन बाजार लगता है, स्थानीय भाषा में जिसे 'हटिया' कहा जाता है. यहाँ आपको चीज़ें कुछ सस्ते दामों में मिल सकती है.
हटिया का एक दृश्य; स्थान- विशनपुर

पहले अधिकतर लोग रविवार, मंगलवार और गुरुवार को मांस-मछली का सेवन नहीं करते थे, लेकीन धीरे-धीरे ये भी बदल रहा है. इसके अलावा कबूतर पालन का व्यवसाय भी पहले काफी अच्छा चलता था. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए ये मटन की तरह होता था. इसके अलावा चौक पर पहले एक छोटी सी देशी और विदेशी मदिरा की दुकान स्थित थी. प्रदेश में शराबबंदी के बाद वो अब हट चुकी है. लेकिन आप यदि सामर्थ्यवान हैं या आपकी थोड़ी बहुत जान-पहचान है, तो आप अपने मतलब की चीज़ें अब भी दूंढ़ सकते हैं.
    गाँव में ऊँचे तबके के लोग, मेरा मतलब सिर्फ उनकी जाति से है, इसमें उनके आर्थिक स्थिति से कोई लेना देना नहीं है, के हिसाब से गाँव में जातियाँ दो प्रकार से विभाजित हैं. एक वो जिनका "पानी चलता है" और दुसरे वो जिनका "पानी नहीं चलता है". पानी चलने से तात्पर्य ये है कि ऐसी जातियाँ जिनका हाथ लगाया हुआ पानी पिया जा सकता है, और दुसरे वे जिनके हाथ का छुआ पानी भी नहीं पिया जा सकता है. गाँव में इन ऊँचे
तबके के लिए इनका धर्म सबसे ऊपर है, इनकी जात सबसे ऊपर है, ये अभी तक इन ओछी भावनाओं से बाहर नहीं निकल पाए हैं. इनमें ज्यादातर बुजुर्ग लोग ही है. अगर आप खुद को खुले और आधुनिक विचारों का मानते हैं, और आपको इनकी बातें सुनने का मौका मिलेगा, तो आपके चेहरे पे न चाहते भी हुए एक मुस्कान आ जायेगी,ये सोच के, कि किस ज़माने में जी रहे हैं ये लोग. ज्यादा दुःख तब होता है, जब नयी पीढ़ी के पढ़े -लिखे लोग, सब कुछ जानते हुए भी ऐसे सोच को समर्थन करते हैं. ये वहीँ हैं जिनको देश से आरक्षण हटाना हैं, लेकिन अपनी सोच भी नहीं बदल सकते हैं.
    अभी गाम गोलमा को बहुत सी चीज़ों से लड़ना है. अशिक्षा, अस्वच्छता, कुपोषण और जातिगत भावनाओं से परे उठना, उनमें से कुछ मुख्य है. नयी शिक्षित पीढ़ी जिन्हें अपनी माटी से प्रेम है, जो अपने गाँव को विकसित देखना चाहते हैं, को वापस गाँव का रुख करना चाहिए. वैसे मुझे पता है, गाँव में शहरी लोगों को देने के लिए स्वच्छ पानी, स्वच्छ हवा और यहाँ होने वाले प्रतिभोज के अलावा शायद ही कुछ नया हो, लेकिन फिर भी
वो लौट के आ सकते हैं अपने माटी के लिए... बस अपनी माटी के लिए...

    Tip: बच्चों के नाम 'अ'कारअंत चुना जा सकता है, समाज में अपने आप लग जाने वाले प्रत्यय कुछ ज्यादा असर नहीं करेगा नाम पे.  😀😉
विद्यालय का मुख्या द्वार, संस्थापक का नाम और स्थापना वर्ष अंकित है .
फोटो में बायीं ओर देवी सरस्वती का मंदिर है.


( इस बार गाँव के माध्यमिक विद्यालय की कुछ फोटो साथ में पोस्ट कर रहा हूँ, विद्यालय का भवन बहुत ही अच्छी स्थिति में है, अपनी खूबसूरती से शहर के कुछ निजी शिक्षण संस्थानों को भी चुनौती दे सकता है... विद्यालय के बीच में देवी सरस्वती का एक मंदिर भी बनाया गया है..आप गर्व कर सकते हैं...  विद्यालय को देख कर...)

          :-    #MJ_की_कीपैड_से