# मन्टुनमा_रिव्यु
हालांकि मैं खुद को इस काबिल नहीं मानता की मैं इसको रिव्यु दे सकू! लेकिन फिर भी ये बताना तो जरुरी है.
की कैसा रहा मन्टुनमा के साथ मेरा 96 पन्नों का सफ़र!
"क्योंकि उसके नाम के पीछे 'मा' लगा है, इसीलिए वो गँवार है अनपढ़ है. जिस दिन ये हट गया, ये गँवार, जाहिल और अनपढ़ का तमगा भी हट जाएगा"
*
मेरे हिसाब से ये किताब उनको बहुत ज्यादा पसंद आएगी जो लगभग 15-20 सालों से अपने घर (यानी बिहार जो की इसकी पृष्ठभूमि भी है) से दूर रह
रहे हैं, और जिनके अन्दर उनकी जन्मभूमि आज भी बसती है. और वो भी जो बिहार की बोली में छिपी मासूमियत को मिस करते है.
हालाँकि शयाद ये किताब और हमारे नायक मन्टुनमा को ठीक से समझने में उनको थोड़ी परेशानी तो जरुर होगी, जो इस पृष्ठभूमि से सम्बन्ध
नहीं रखते. उनको ये शब्द "चभक्का लगाना", "अलबला जाना" या "ढ़उसा" शायद कुछ अटपटे लगें. लेकिन यकीं मानिए इनकी खूबसूरती
इन्हीं शब्दों के ही साथ है.
मन्टुनमा का लघु परिचय मेरे शब्दों में ( हालांकि शब्द अब भी उनके ही है )
मन्टुनमा दिवाली के बाद वाले दिन में दिवाली मनाता है. धान के सीजन में अलसाए हुए खेतों की मेड़ पर बैठकर नबका चूड़ा और शक्कर का आनंद
लेता है. जमीन को, उ माय मानता है, और माय को भी छोड़कर जाता है कोई भला, भले ही वो यहाँ (गाँव में) दो जून की रोटी का मुश्किल से जुगाड़ कर पाए.
भोज करने के लिए वो तीन-चार कोश तो वो पैदल ही चल लेता है. मेला उसको बहुत पसंद है, काहे की मेला में उसने दुकानदार से बात कर लिया है
कि 1 घंटा तक दुकान के सामने "10 रूपए पाव जिलेबी" चिल्लाएगा तो बदले में एक पाव जिलेबी उसको इनाम में मिलेगा.
मुट्ठी भर बुनिया ( बूंदी वाली मिठाई) के लिए वो चिल्ला चिल्ला कर भगत सिंह -अमर रहे, चाचा नेहरु -अमर रहे के नारे लगा सकता है.
मन्टुनमा के घर में बिजली नहीं है, हाँ रोशनी का काम सड़क की स्ट्रीट लाइट से चल जाता है, जो उनके घर का भेपर लैंप,टेबल लैंप, झूमर और
मेन लाइट का काम करता है. मन्टुनमा की नज़रें समाज के साथ राजनीति में भी गड़ी रहती है.
मन्टुनमा के पास साइकिल तक नहीं है, फिर भी बिसकरमा डे बड़े चाव से मनाता है.
हालाँकि मैं पहले से ही 'मन्टुनमा' का दीवाना हूँ, लेकिन ये किताब उन सारी कहानियों का संग्रह है. शायद बहुत बार पढने वाला हूँ.
और क्या पता शायद ये जरिया भी बन जाए, हम परदेशियों के लिए अपने जन्मभूमि से जुड़े रहने का.
*p.s- किताब शुरू करने के दौरान जो आपके चहरे पर एक मुस्कान तैर जाती है, ये किताब उस मुस्कान की अंत तक बरक़रार रखने में कामयाब होती है!
कुछ जगह आप ठहाका भी मार सकते हैं.
"बहुत खूब मन्टुनमा!!"
हाँ, मेरी दुनिया. शब्द भले ही ब्लैक एंड वाइट में हो.. शायद अपना ये प्रभाव कुछ रंगीन छोड़ जाए.. इसमें एक "कुछ भी" का सेगमेंट है, जिसमें मैं अपनी लिखी हुई कुछ फनी सा पोस्ट करता हूँ. "यूँ ही" में कुछ आपको सेंटी सी कवितायेँ या शायरी मिल जायेंगी. और मेरा पसंदीदा "रिकी बॉस" मेरा एक करैक्टर है जिसके जरिये मैं अपनी बात रखने की कोशिश करता हूँ.. आशा है आपको पसंद आएगा.
रास्ता पता है मगर..मंजिल से अनजान हूँ
Saturday, 18 June 2016
मन्टुनमा रिव्यु (Mantunma's Review) by Manjesh Jha
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